सोमवार, 19 अगस्त 2013

क्या कारण है?

आचार्य चाणक्य के नगर अफगानिस्तान से हिंदू मिट गया ?

काबुल जो भगवान राम के पुत्र कुश का बनाया शहर था आज वहाँ एक भी मंदिर नही बचा
गंधार जिसका विवरण महाभारत मे है जो चाणक्य के अखंड भारत की सीमा हुआ करता था 

जहां की रानी गांधारी थी आज उसका नाम कंधार हो चूका है और वहाँ आज एक भी हिंदू नही 

बचा
कम्बोडिया जहां राजा सूर्य देव बर्मन ने दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर अंकोरवाट बनाया आज 

वहा भी हिंदू नही है

बाली द्वीप मे २० साल पहले तक ९०% हिंदू थे आज सिर्फ २०% बचे

कश्मीर घाटी मे सिर्फ २० साल पहले ५०% हिंदू थे , आज एक भी हिंदू नही बचा
नोर्थ ईस्ट जैसे सिक्किम, नागालैंड , आसाम आदि मे हिंदू हर रोज मारे या भगाएजाते है या 

उनका धर्मपरिवर्तन हो रहा है
1569 तक ईरान का नाम पारस या पर्शिया होता था और वहाँ एक भी मुस्लिम नही था सिर्फ 

पारसी रहते थे .. जब पारस पर मुस्लिमो का आक्रमणहोता था तब पारसी बूढ़े बुजुर्ग अपने 

नौजवान को यही सिखाते थे की हमे कोई मिटा नही सकता . लेकिन ईरान से सारे के सारे 

पारसी मिटा दिये गए .. धीरे धीरे उनका कत्लेआम और धर्मपरिवर्तन होता रहा ..

एक नाव मे बैठकर २१ पारसी किसी तरह गुजरात के नवसारी जिले के उद्वावाडा गांव मे पहुचे 

और आज पारसी सिर्फ भारत मे ही गिनती की संख्या मे बचे है


अफनिस्तान मेँ हिन्दू खत्म हो गया पाकिस्तान बाँग्लादेश मेँ हिन्दू खत्म होने की कगार पर है 

और भारत मेँ भी हिन्दु घट ही रहा है इसके कारण क्या है????
क्या कारण है कि किसी मुस्लिम बस्ति मेँ अकेले घुसने मेँ हमेँ डर लगने लगता है ??
क्या कारण है कि हमने कभी किसी भी देश पर आक्रमण नहीँ किया फिर भी लोगोँ ने हमारी 

सीमाओँ हमारी संस्कृति को तहस नहस किया
क्या कारण है कि आज कोई भी नेता खुल कर मुस्लिमोँ के लिये हज सब्सिडी आरक्षण बालिका 

विद्या धन जैसी योजनायेँ लागूकरके धर्मनिरपेक्ष बन जाता है और विरोधकरने वाला 

सामप्रदायिक

क्या कारण है कि कुछ उलेमा हाजी काजी 15 मिनट मेँ भारत तोड़ने की बात तक कर जाते हैँ 

और हम कुछ नहीँ कर पाते
कुछ तो कारण होँगे ,,,,,,,,,,,,???

"कारण है ! कारण है हिंदुत्व के नाम पर हो रही राजनीति, कारण है आश्रमों, मंदिरों में दुबके 

धर्म के कम्बल में छुपे कायर साधू-सन्यासी और धर्मभीरु भक्त, कारण है धर्म के नाम पर लूट 

रहे पाखंडी पण्डे-पुरोहित, कारण है भूखे और लाचार को रोटी के बजाय नाम जप और संकीर्तन 

देना, कारण है कर्म-काण्ड, आडम्बर और दिखावे में उलझे पाखंडी अवतारी और उनके भक्त | 

कारण है ग्रामीणों और आदिवासियों की छीन रही स्त्रियों और भूमि पर आँख मूँद लेना | कारण 

है जाति-पाति में हिन्दुओं का बंटा होना | कारण है जब कोई एक हिन्दू मुसीबत में होता है तो 

बाकी हिन्दू शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर गाड़ लेते हैं या धर्म के कम्बल में दुबक जाते हैं.


आओ हम संकल्प ले की हम सब जाति पाती  के मतभेद भुलाकर एक हो जाएंगे  और हिन्द 

देश के निवासी सभी अपने को एकमात्र हिन्दू कहलायेंगे । और हिन्दुओ पर हो रहे अत्याचार 

का एक हो कर विरोध करेंगे । चाहे हमें कोई सांप्रदायिक कहे हम किसी भी हिन्दू बहन बेटी पर 

अत्याचार होता नहीं देखेंगे और अपनी पूरी शक्ति से उसका विरोध करेंगे । किसी भी हिन्दू 

भाई पर किसी भी प्रकार का संकट आये तो हम उसकी मदद करेंगे और एक हो कर रहेंगे । 

रविवार, 18 अगस्त 2013

एक निवेदन

सभी संत महंतो को प्रणाम ,

मै आप सभी से एक निवेदन करना चाहता हूँ की अभी हाल में ही ०९ अगस्त २०१३ को ईद के दिन मुसलमानों ने ईद की नमाज के बाद सुनियोजित ढंग से जम्मू कश्मीर के किश्तवार क्षेत्र में हिन्दुओ पर हमला कर दिया । हिन्दुओ की दुकानों को लूटा गया । हिन्दुओ को मारा काटा गया हिन्दू बहनों की इज्जत लूटी गई । और वहां की पुलिस खड़ी खड़ी देखती रही ।  यह सब सुनियोजित ढंग से इसलिए किया गया की वहां के हिन्दू डर जाएँ और डर कर कश्मीरी पडितो की तरह कश्मीर से पलायन कर जाएँ । 
 अतः सभी हिन्दू भाई बहनों से निवेदन की आपस के सभी मतभेद भुला कर हम सब एक हो जाएँ और एक मत से हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए नरेन्द्र मोदी को प्रधान मंत्री बनवाने में सहयोग करे ।  अन्यथा जो घटना किश्तवार में हुई है वो आने वाले समय में पुरे देश में घटेगी ।  और हिन्दुओ का हिंदुस्तान में ही रहना दुश्वार हो जायेगा 

शनिवार, 17 अगस्त 2013

वीर सावरकर

वीर सावरकर को काला पानी की सजा के दौरान भयानक सैल्यूलर जेल मैं रखा गया। उन्हें दूसरी मंजिल की कोठी नंबर २३४ मैं रखा गया और उनके कपड़ो पर भयानक कैदी लिखा गया। कोठरी मैं सोने और खड़े होने पर दीवार छू जाती थी। उन्हें नारियल की रस्सी बनाने और ३० पौंड तेल प्रतिदिन निकलने के लिए बैल की तरह कोल्हू मैं जोता जाता था। इतना कष्ट सहने के बावजूद भी वह रात को दीवार पर कविता लिखते, उसे याद करते और मिटा देते। १३ ...मार्च १९१० से लेकर १० मई १९३७ तक २७ वर्षो की अमानवीय पीडा भोग कर उच्च मनोबल, ज्ञान और शक्ति साथ वह जेल से बाहर निकले जैसे अँधेरा चीर कर सूर्य निकलता है।

आजादी के बाद भी पंडित जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस ने उनसे न्याय नहीं किया। देश का हिन्दू कहीं उन्हें अपना नेता न मान बैठे इसलिए उन पर महात्मा गाँधी की हत्या का आरोप लगा कर लाल किले मैं बंद कर दिया गया। बाद मे. न्यायालय ने उन्हें ससम्मान रिहा कर दिया। पूर्वाग्रह से ग्रसित कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें इतिहास मैं यथोचित स्थान नहीं दिया। स्वाधीनता संग्राम में केवल गाँधी और गांधीवादी नेताओं की भूमिका का बढा-चढ़ाकर उल्लेख किया गया।

वीर सावरकर की मृत्यु के बाद भी कांग्रेस ने उन्हें नहीं छोडा। सन २००३ मैं वीर सावरकर का चित्र संसद के केंद्रीय कक्ष मैं लगाने पर कांग्रेस ने विवाद खडा कर दिया था। २००७ मैं कांग्रेसी नेता मणि शंकर अय्यर ने अंडमान के कीर्ति स्तम्भ से वीर सावरकर के नाम का शिलालेख हटाकर महात्मा गाँधी के नाम का पत्थर लगा दिया। जिन कांग्रेसी नेताओ ने राष्ट्र को झूठे आश्वासन दिए, देश का विभाजन स्वीकार किया, जिन्होंने शेख से मिलकर कश्मीर का सौदा किया, वो भले ही आज पूजे जाये पर क्या वीर सावरकर को याद रखना इस राष्ट्र का कर्तव्य नहीं है?

रविवार, 11 अगस्त 2013

अभिचार-कर्म नाशक :साबर साधना



आजकल छोटी-मोटी तंत्र का क्रिया लोग शत्रुत्व के हिसाब से कराते रहेते है,थोडासा भी क्या मनमुटाव हो गया तो समजो एक तो खुद करेगे या किसी तांत्रिक को पैसा देकर दूसरों को परेशान करने का काम करेगे,ये साधना करने के बाद न अब तांत्रिक सो पाएगा ना ही प्रयोग करने वाला छोटा डॉन चैन से सो पायेगा हा हा हा.................अब तो मजा आजायेगा..........क्यूकी इस प्रयोग से तंत्र बाधा जहा समाप्त होती है वही आप पर किए जाने वाले तंत्र-मंत्र इत्यादि वापस लौट जाते है,आप पर प्रयोग करने वाले की पुंगी बज जाती है..............हर लड़की ने तो यह प्रयोग करना ही चाहिए ताकि उन्हे पता चले उनपर किसिने वशीकरण तो नहीं किया है???समस्याये अनेक परंतु उपाय एक साबर मंत्र साधना.......

साधना तो बेहद आसान है,साधना काल मे ब्रम्हचैर्यत्व आवश्यक है,माला रुद्राक्ष का हो,धोती और आसन भगवे एवं लाल रंग का हो,दीपक मे सिर्फ देशी घी होना चाहिये,लोबान का धूप जलाओ,साधना से पूर्व गणेश जी ,गुरुजी और दत्त-महाप्रभुजी का पूजन आवश्यक है॰

निम्न मंत्र का जाप किसि भी शनिवार से करे,यह साधना 11 दिन का है,साधना शाम के समय करना अनुकूल है,साधना मे नित्य 108 बार मंत्र जाप आवश्यक है,मंत्र का जब भी स्वयं के लिए प्रयोग करना हो तो 7 बार मंत्र बोलकर जल पे 3 बार फुक मारे और जल को ग्रहण करले दूसरे व्यक्ति के लिये भि यही विधान है,अगर प्रयोग आपके सामने किया जा रहा हो तो तुरंत ही ७ बार मंत्र बोलकर अपने सिने पे ३ फुक मारले........तो तंत्र-मंत्र का असर नष्ट होता है और किया गया तंत्र-मंत्र करनेवाले पे वापस लौट जाता है......

मंत्र-

जल बाँधो,जलाजल बाँधो । जल के बाँधो कीरा,नौ नगर के राजा बाँधो,टोना के बाँधो जंजीरा । धरमदास कबीर, चकमक धुरी धर के काटे जाम के जूरी । काकर फूँके, मोर फूँके । मोर गुरु धरमदास के फूँके, जिहा से आय हस, वही चले जा, सत गुरु,सत कबीर

शनिवार, 10 अगस्त 2013

मुगल शासक अकबर और पानबाई उर्फ जोधाबाई

इतिहास तो यही कहता हे कि जयपुर के राजा भारमल की बेटी जोधाबाई का विवाह मुगल शासक अकबर के साथ हुआ था किन्तु सच कुछ और ही है। 

वस्तुत: न तो जोधाबाई का विवाह अकबर के साथ कराया गया, और न ही विदाई के समय जोधाबाई को दिल्ली ही भेजा गया।

अब प्रश्न यह उठता हे कि फिर जोधाबाई के नाम पर किस युवति से अकबर का विवाह रचाया गया था?

अकबर का विवाह जोधाबाई के नाम पर दीवान वीरमल की बेटी पानबाई के साथ रचाया गया था। दीवान वीरमल का पिता खाजूखाँ अकबर की सेना का मुखिया था। किसी बड़ी गलती के कारण अकबर ने खाजूखाँ को जेल में डाल खोड़ाबेड़ी पहना दी और फांसी का हुक्म दिया। मौका पाकर खाजूखाँ खोड़ाबेड़ी तोड़ जेल से भाग निकला, और सपरिवार जयपुर आ पगड़ी धारणकर शाह बन गया। खाजूखाँ का बेटा वीरमल बड़ा तेज और होनहार था, सो दीवान बना लिया गया। यह भेद बहुत कम लोगों को ज्ञात था।

दीवान वीरमल का विवाह दीवालबाई के साथ हुआ था। पानबाई वीरमल और दीवालबाई की पुत्री थी। पानबाई व जोधाबाई हम उम्र व दिखने में भी दोनों एक जैसी थी। 

इस प्रकरण में मेड़ता के राव दूदा राजा मानसिंह के पूरे सहयोगी और परामर्शक रहे। राव दूदा के परामर्श से जोधाबाई को जोधपुर भेज दिया गया। इसके साथ हिम्मत सिंह और उसकी पत्नी मूलीबाई को जोधाबाई के धर्म के पिता-माता बनाकर भेजा गया परन्तु भेद खुल जाने के डर से दूदा इन्हें मेड़ता ले गया और वहां से ठिकानापति बनाकर कुड़की भेज दिया। जोधाबाई का नाम जगत कुंवर कर दिया गया और राव दूदा ने उससे अपने पुत्र रतन सिंह का विवाह रचा दिया। इस प्रकार जयपुर के राजा भारमल की बेटी जोधाबाई उर्फ जुगत कुंवर का विवाह तो मेड़ता के राव दूदा के बेटे रतन सिंह के साथ हुआ था। विवाह के एक वर्ष बाद जुगत कुंवर ने एक बालिका को जन्म दिया। यही बालिका मीराबाई थी।

इधर विवाह के बाद अकबर ने कई बार जोधाबाई (पानबाई) को कहा कि वह मानसिंह को शीघ्र दिल्ली बुला लें। पहले तो पानबाई सुनी-अनसुनी करती रही पर जब अकबर बहुत परेशान करने लगा तो पानबाई ने मानसिंह के पास समाचार भेजा कि वें शीघ्र दिल्ली चले आयें नहीं तो वह सारा भेद खोल देगी। ऐसी स्थिति में मानसिंह क्या करते, उन्हें न चाहते हुये भी मजबूर होकर दिल्ली जाना पड़ा।

अकबर व पानबाई उर्फ जोधाबाई दम्पति की सन्तान सलीम हुये, जिसे इतिहास जहाँगीर के नाम से जानता है। 

पहले कश्मीर.. फिर केरल इसके बाद आसाम मे हिंदू अल्पसंख्यक हो गया है और अब मुस्लिम खुलकर हिन्दुओ के घर जला रहे है

 जम्मू-कश्मीर के किश्तवार से मिली खबर के अनुसार 

तकरीबन 25000 मुसलमानों ने ईद की नमाज के  तुरंत बाद हिन्दू 

गाँवों पर हमला कर दिया था। मुसलमान लगातार गोलियां चला रहे थे 

जिस वजह से बहुत से हिन्दू बंधु बुरी तरह घायल हो गए। किश्तवार मे 

90%  हिंदुओं की दुकानों को जला दिया गया है। दंगे की विभीषिका 

को देखते हुए प्रथमद्रष्ट्या ही ये कहा जा सकता है की इस दंगे की 

प्लानिंग पहले से की जा चुकी थी। और इस प्लानिंग मे वहाँ के 

मिनिस्टर का हाथ है  ऐसा वहाँ के लोगों का मानना है। मुसलमानों ने 

3 हिन्दू बहनों को अगवा कर लिया है। तीनों महिलाओं का अभी 
तक कोई पता नहीं चल पाया है।  

रविवार, 4 अगस्त 2013

'मैंने गाँधी को क्यों मारा?'- नाथूराम गॉडसे का अन्तिम बयान



(इसे सुनकर अदालत में उपस्थित सभी लोगों की आँखें गीली हो गयी थीं और कई तो रोने लगे थे। एक न्यायाधीश महोदय ने अपनी टिप्पणी में लिखा था कि यदि उस समय अदालत में उपस्थित लोगों को जूरी बना दिया जाता और उनसे फैसला देने को कहा जाता, तो निस्संदेह वे प्रचण्ड बहुमत से नाथूराम के निर्दोष होने का निर्णय देते।)
एक धार्मिक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के कारण मैं हिन्दू धर्म, हिन्दू इतिहास और हिन्दू संस्कृति की पूजा करता हूँ। इसलिए मैं सम्पूर्ण हिन्दुत्व पर गर्व करता हूँ। जब मैं बड़ा हुआ, तो मैंने मुक्त विचार करने की प्रवृत्ति का विकास किया, जो किसी भी राजनैतिक या धार्मिक वाद की असत्य-मूलक भक्ति की बातों से मुक्त हो। यही कारण है कि मैंने अस्पृश्यता और जन्म पर आधारित जातिवाद को मिटाने के लिए सक्रिय कार्य किया। मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जातिवाद-विरोधी आन्दोलन में खुले रूप में शामिल हुआ और यह मानता हूँ कि सभी हिन्दुओं के धार्मिक और सामाजिक अधिकार समान हैं, सभी को उनकी योग्यता के अनुसार छोटा या बड़ा माना जाना चाहिए, न कि किसी विशेष जाति या व्यवसाय में जन्म लेने के कारण। मैं जातिवाद-विरोधी सहभोजों के आयोजन में सक्रिय भाग लिया करता था, जिसमें हजारों हिन्दू ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चमार और भंगी भाग लेते थे। हमने जाति के बंधनों को तोड़ा और एक दूसरे के साथ भोजन किया।
मैंने रावण, चाणक्य, दादाभाई नौरोजी, विवेकानन्द, गोखले, तिलक के भाषणों और लेखों को पढ़ा है। साथ ही मैंने भारत और कुछ अन्य प्रमुख देशों जैसे इंग्लैंड, फ्रांस, अमेरिका और रूस के प्राचीन और आधुनिक इतिहास को भी पढ़ा है। इनके अतिरिक्त मैंने समाजवाद और माक्र्सवाद के सिद्धान्तों का भी अध्ययन किया है। लेकिन इन सबसे ऊपर मैंने वीर सावरकर और गाँधीजी के लेखों और भाषणों का भी गहरायी से अध्ययन किया है, क्योंकि मेरे विचार से किसी भी अन्य अकेली विचारधारा की तुलना में इन दो विचारधाराओं ने पिछले लगभग तीस वर्षों में भारतीय जनता के विचारों को मोड़ देने और सक्रिय करने में सबसे अधिक भूमिका निभायी है।
इस समस्त अध्ययन और चिन्तन से मेरा यह विश्वास बन गया है कि एक देशभक्त और एक विश्व नागरिक के नाते हिन्दुत्व और हिन्दुओं की सेवा करना मेरा पहला कर्तव्य है। स्वतंत्रता प्राप्त करने और लगभग 30 करोड़ हिन्दुओं के न्यायपूर्ण हितों की रक्षा करने से समस्त भारत, जो समस्त मानव जाति का पाँचवा भाग है, को स्वतः ही आजादी प्राप्त होगी और उसका कल्याण होगा। इस निश्चय के साथ ही मैंने अपना सम्पूर्ण जीवन हिन्दू संगठन की विचारधारा और कार्यक्रम में लगा देने का निर्णय किया, क्योंकि मेरा विश्वास है कि केवल इसी विधि से मेरी मातृभूमि हिन्दुस्तान की राष्ट्रीय स्वतंत्रता को प्राप्त किया और सुरक्षित रखा जा सकेगा एवं इसके साथ ही वह मानवता की सच्ची सेवा भी कर सकेगी।
सन् 1920 से अर्थात् लोकमान्य तिलक के देहान्त के पश्चात् कांग्रेस में गाँधीजी का प्रभाव पहले बढ़ा और फिर सर्वोच्च हो गया। जन जागरण के लिए उनकी गतिविधियाँ अपने आप में बेजोड़ थीं और फिर सत्य तथा अहिंसा के नारों से वे अधिक मुखर हुईं, जिनको उन्होंने देश के समक्ष आडम्बर के साथ रखा था। कोई भी बुद्धिमान या ज्ञानी व्यक्ति इन नारों पर आपत्ति नहीं उठा सकता। वास्तव में इनमें कुछ भी नया अथवा मौलिक नहीं है। वे प्रत्येक सांवैधानिक जन आन्दोलन में शामिल होते हैं। लेकिन यह केवल दिवा स्वप्न ही है यदि आप यह सोचते हैं कि मानवता का एक बड़ा भाग इन उच्च सिद्धान्तों का अपने सामान्य दैनिक जीवन में अवलम्बन लेने या व्यवहार में लाने में समर्थ है या कभी हो सकता है।
वस्तुतः सम्मान, कर्तव्य और अपने देशवासियों के प्रति प्यार कभी-कभी हमें अहिंसा के सिद्धान्त से हटने के लिए और बल का प्रयोग करने के लिए बाध्य कर सकता है। मैं कभी यह नहीं मान सकता कि किसी आक्रमण का सशस्त्र प्रतिरोध कभी गलत या अन्यायपूर्ण भी हो सकता है। प्रतिरोध करने और यदि सम्भव हो तो ऐसे शत्रु को बलपूर्वक वश में करने को मैं एक धार्मिक और नैतिक कर्तव्य मानता हूँ। (रामायण में) राम ने विराट युद्ध में रावण को मारा और सीता को मुक्त कराया, (महाभारत में) कृष्ण ने कंस को मारकर उसकी निर्दयता का अन्त किया और अर्जुन को अपने अनेक मित्रों एवं सम्बंधियों, जिनमें पूज्य भीष्म भी शामिल थे, के साथ भी लड़ना और उनको मारना पड़ा, क्योंकि वे आक्रमणकारियों का साथ दे रहे थे। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि महात्मा गाँधी ने राम, कृष्ण और अर्जुन को हिंसा का दोषी ठहराकर मानव की सहज प्रवृत्तियों के साथ विश्वासघात किया था।
अधिक आधुनिक इतिहास में छत्रपति शिवाजी ने अपने वीरतापूर्ण संघर्ष के द्वारा ही पहले भारत में मुस्लिमों के अन्याय को रोका और फिर उनको समाप्त किया। शिवाजी द्वारा अफजल खाँ को काबू करना और उसका वध करना अत्यन्त आवश्यक था, अन्यथा उनके अपने प्राण चले जाते। इतिहास के इन विराट योद्धाओं जैसे शिवाजी, राणा प्रताप और गुरु गोविन्द सिंह की निन्दा ‘दिग्भ्रमित देशभक्त’ कहकर करने से गाँधीजी ने केवल अपनी आत्म-केन्द्रीयता को ही प्रकट किया था। वे एक दृढ़ शान्तिप्रेमी मालूम पड़ सकते हैं, लेकिन वास्तव में वे लोकविरुद्ध थे, क्योंकि वे देश में सत्य और अहिंसा के नाम पर अकथनीय दुर्भाग्य की स्थिति बना रहे थे, जबकि राणा प्रताप, शिवाजी एवं गुरु गोविन्द सिंह स्वतंत्रता दिलाने के लिए अपने देशवासियों के हृदय में सदा पूज्य रहेंगे।
उनकी 32 वर्षों तक उकसाने वाली गतिविधियों के बाद पिछले मुस्लिम-परस्त अनशन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचने को बाध्य हुआ था कि गाँधी के अस्तित्व को अब तत्काल मिटा देना चाहिए। गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में वहाँ के भारतीय समुदाय के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए अच्छा कार्य किया, लेकिन जब वे अन्त में भारत लौटे, तो उन्होंने एक ऐसी मानसिकता विकसित कर ली जिसके अन्तर्गत अन्तिम रूप से वे अकेले ही किसी बात को सही या गलत तय करने लगे। यदि देश को उनका नेतृत्व चाहिए, तो उसको उनको सर्वदा-सही मानना पड़ेगा और यदि ऐसा न माना जाये, तो वे कांग्रेस से अलग हो जायेंगे और अपनी अलग गतिविधियाँ चलायेंगे। ऐसी प्रवृत्ति के सामने कोई भी मध्यमार्ग नहीं हो सकता। या तो कांग्रेस उनकी इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर दे और उनकी सनक, मनमानी, तत्वज्ञान तथा आदिम दृष्टिकोण में स्वर-में-स्वर मिलाये अथवा उनके बिना काम चलाये। 
वे अकेले ही प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक वस्तु के लिए निर्णायक थे। वे नागरिक अवज्ञा आन्दोलन के पीछे प्रमुख मस्तिष्क थे, कोई अन्य उस आन्दोलन की तकनीक नहीं जान सकता था। वे अकेले ही जानते थे कि कोई आन्दोलन कब प्रारम्भ किया जाये और कब उसे वापस लिया जाये। आन्दोलन चाहे सफल हो या असफल, चाहे उससे अकथनीय आपदाएँ और राजनैतिक अपघात हों, लेकिन उससे उस महात्मा के कभी-गलत-नहीं होने के गुण पर कोई अन्तर नहीं पड़ सकता। अपने कभी-गलत-न-होने की घोषणा के लिए उनका सूत्र था- ‘सत्याग्रही कभी असफल नहीं हो सकता’ और उनके अलावा कोई नहीं जानता कि ‘सत्याग्रही’ होता क्या है। इस प्रकार महात्मा गाँधी अपने लिए जूरी और जज दोनों थे। इन बच्चों जैसे पागलपन और स्वेच्छाचारिता के साथ अति कठोर आत्मसंयम, निरन्तर कार्य और उन्नत चरित्र ने मिलकर गाँधी को भयंकर रूप से उग्र तथा निद्र्वन्द्व बना दिया था।
बहुत से लोग सोचते थे कि उनकी राजनीति विवेकहीन थी, पर या तो उन्हें कांगे्रेस को छोड़ना पड़ा या अपनी प्रतिभा को गाँधी के चरणों में डाल देना पड़ा, जिसका वे कोई भी उपयोग कर सकते थे। ऐसी पूर्ण गैरजिम्मेदारी की स्थिति में गाँधी भूल पर भूल, असफलता पर असफलता और आपदा पर आपदा पैदा करने के अपराधी थे। भारत की राष्ट्र भाषा के प्रश्न पर गाँधी की मुस्लिमपरस्त नीति उनकी हड़बड़ीपूर्ण प्रवृत्ति के अनुसार ही है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि देश की प्रमुख भाषा बनने के लिए हिन्दी का दावा सबसे अधिक मजबूत है। अपने राजनैतिक जीवन के प्रारम्भ में गाँधीजी हिन्दी को बहुत प्रोत्साहन देते थे, लेकिन जैसे ही उनको पता चला कि मुसलमान इसे पसन्द नहीं करते, तो वे तथाकथित ‘हिन्दुस्तानी’ के पुरोधा बन गये। भारत में सभी जानते हैं कि ‘हिन्दुस्तानी’ नाम की कोई भाषा नहीं है, इसका कोई व्याकरण नहीं है और न इसकी कोई शब्दावली है। यह केवल एक बोली है, जो केवल बोली जाती है, लिखी नहीं जाती। यह हिन्दी और उर्दू की एक संकर या दोगली बोली है और महात्मा गाँधी का मिथ्यावाद भी इसे लोकप्रिय नहीं बना सकता। लेकिन केवल मुस्लिमों को प्रसन्न करने की अपनी इच्छा के अनुसार उनका आग्रह था कि केवल ‘हिन्दुस्तानी’ ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। हालांकि उनके अन्धभक्तों ने उनका समर्थन किया और वह तथाकथित भाषा उपयोग की जाने लगी। इस प्रकार मुस्लिमों को खुश करने के लिए हिन्दी भाषा के सौन्दर्य और शुद्धता के साथ बलात्कार किया गया। उनके सारे प्रयोग केवल हिन्दुओं की कीमत पर किये जाते थे।
अगस्त 1946 के बाद मुस्लिम लीग की निजी सेनाओं ने हिन्दुओं का सामूहिक संहार प्रारम्भ किया। तत्कालीन वायसराय लार्ड वैवेल ने इन घटनाओं से व्यथित होते हुए भी भारत सरकार कानून 1935 के अनुसार प्राप्त अपनी शक्तियों का उपयोग बलात्कार, हत्या और आगजनी को रोकने के लिए नहीं किया। बंगाल से कराची तक हिन्दुओं का खून बहता रहा, जिसका प्रतिरोध हिन्दुओं द्वारा कहीं-कहीं किया गया। सितम्बर में बनी अन्तरिम सरकार के साथ मुस्लिम लीग के सदस्यों द्वारा प्रारम्भ से ही विश्वासघात किया गया, लेकिन वे सरकार के साथ, जिसके वे अंग थे, जितने अधिक राजद्रोही और विश्वासघाती होते जाते थे, उनके प्रति गाँधी का मोह उतना ही बढ़ता चला जाता था। लार्ड वैवेल को त्यागपत्र देना पड़ा, क्योंकि वे इस समस्या को हल नहीं कर सके और उनकी जगह लार्ड माउंटबेटन आये, जैसे नागनाथ की जगह साँपनाथ आये हों। कांग्रेस ने, जो अपनी देशभक्ति और समाजवाद का दम्भ किया करती थी, गुप्त रूप से बन्दूक की नोंक पर पाकिस्तान को स्वीकार कर लिया और जिन्ना के सामने नीचता से आत्मसमर्पण कर दिया। भारत के टुकड़े कर दिये गये और 15 अगस्त 1947 के बाद देश का एक-तिहाई भाग हमारे लिए विदेशी भूमि हो गयी। 
कांग्रेस में लार्ड माउंटबेटन को भारत का सबसे महान् वायसराय और गवर्नरजनरल बताया जाता है। सत्ता के हस्तांतरण की आधिकारिक तिथि 30 जून 1948 तय की गयी थी, परन्तु माउंटबेटन ने अपनी निर्दयतापूर्ण चीरफाड़ के बाद हमें 10 महीने पहले ही विभाजित भारत दे दिया। गाँधी को अपने तीस वर्षों की निर्विवाद तानाशाही के बाद यही प्राप्त हुआ और यही है जिसे कांग्रेस ‘स्वतंत्रता’ और ‘सत्ता का शान्तिपूर्ण हस्तांतरण’ कहती है। हिन्दू-मुस्लिम एकता का बुलबुला अन्ततः फूट गया और नेहरू तथा उनकी भीड़ की स्वीकृति के साथ ही एक धर्माधारित राज्य बना दिया गया। इसी को वे ‘बलिदानों द्वारा जीती गयी स्वतंत्रता’ कहते हैं। किसका बलिदान? जब कांग���रेस के शीर्ष नेताओं ने गाँधी की सहमति से इस देश को काट डाला, जिसे हम पूजा की वस्तु मानते हैं, तो मेरा मस्तिष्क भयंकर क्रोध से भर गया।
गाँधी ने अपने आमरण अनशन को तोड़ने के लिए जो शर्तें रखी थीं, उनमें एक दिल्ली में हिन्दू शरणार्थियों द्वारा घेरी गयी मस्जिदों को खाली करने से सम्बंधित थी। परन्तु जब पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हिंसक आक्रमण किये गये, तब उन्होंने उसके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोला और पाकिस्तान सरकार अथवा सम्बंधित मुसलमानों को इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया। गाँधी इतने चतुर तो थे ही कि वे जानते थे कि यदि उन्होंने अपना आमरण अनशन तोड़ने के लिए पाकिस्तान मुसलमानों पर कोई शर्त रखी, तो उनको शायद ही कोई मुसलमान ऐसा मिलेगा जो उनकी जिन्दगी की जरा भी चिन्ता करेगा, भले ही आमरण अनशन में उनके प्राण चले जायें। इसी कारण उन्होंने अनशन तोड़ने के लिए जानबूझकर मुस्लिमों पर कोई शर्त नहीं लगायी। वे अपने अनुभव से अच्छी तरह जानते थे कि जिन्ना उनके अनशन से बिल्कुल भी विचलित या प्रभावित नहीं थे और मुस्लिम लीग गाँधी की आत्मा की आवाज का कोई मूल्य नहीं समझती।
गाँधी को ‘राष्ट्र पिता’ कहा जा रहा है। यदि ऐसा है तो वे अपने पिता जैसे कर्तव्य को निभाने में पूर्णतः असफल रहे, क्योंकि उन्होंने उसके विभाजन की स्वीकृति देकर उसके साथ विश्वासघात किया। मैं साहसपूर्वक कहता हूँ कि गाँधी अपने कर्तव्य में असफल हो गये। उन्होंने स्वयं को ‘पाकिस्तान का पिता’ होना सिद्ध किया। उनकी अन्दर की आवाज, उनकी आत्मिक शक्ति, उनका अहिंसा का सिद्धान्त, जिनसे वे बने थे, सभी जिन्ना की लौह-इच्छा के सामने चरमरा गयी और वे शक्तिहीन सिद्ध हुए। संक्षेप में, मैंने स्वयं विचार किया और समझ गया कि यदि मैं गाँधी को मार दूँगा, तो मैं पूरी तरह नष्ट हो जाऊँगा, लोगों से मुझे केवल घृणा ही मिलेगी और मैं अपना सारा सम्मान खो दूँगा, जो कि मेरे लिए जीवन से भी अधिक मूल्यवान है। लेकिन, इसके साथ ही मैंने यह भी अनुभव किया कि गाँधीजी के बिना भारत की राजनीति अधिक व्यावहारिक तथा प्रतिरोधक्षम होगी तथा सशस्त्र सेनाएँ भी अधिक बलशाली होंगी। निस्संदेह मेरा अपना भविष्य पूरी तरह खण्डहर हो जाएगा, लेकिन राष्ट्र पाकिस्तान के आक्रमणों से बच जाएगा। लोग भले ही मुझे मूर्ख या पागल कहेंगे, लेकिन राष्ट्र उस रास्ते पर बढ़ने के लिए स्वतंत्र हो जाएगा, जिसको मैं सुदृढ़ राष्ट्र-निर्माण के लिए आवश्यक समझता हूँ।
इस प्रश्न पर पूरी तरह विचार करने के बाद, मैंने इस सम्बंध में अन्तिम निर्णय कर लिया, लेकिन मैंने इस बारे में किसी से भी कोई बात नहीं की। मैंने अपने दोनो हाथों में साहस भरा और 30 जनवरी 1948 को बिरला हाउस के प्रार्थना स्थल पर गाँधीजी के ऊपर गोलियाँ दाग दीं। मैं कहता हूँ कि मेरी गोलियाँ एक ऐसे व्यक्ति पर चलायी गयी थीं, जिसकी नीतियों और कार्यों से करोड़ों हिन्दुओं को केवल बरबादी और विनाश ही मिला। ऐसी कोई कानूनी प्रक्रिया नहीं थी जिसके अन्तर्गत उस अपराधी को सजा दिलायी जा सकती और इसीलिए मैंने वे घातक गोलियाँ चलायीं। मुझे व्यक्तिगत रूप से किसी भी व्यक्ति से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन मैं कहता हूँ कि मेरे मन में इस वर्तमान सरकार के प्रति कोई सम्मान नहीं है, जिसकी नीतियाँ अन्याय की हद तक मुसलमानों के प्रति अनुकूल हैं। लेकिन इसके साथ ही मैं यह भी स्पष्ट अनुभव करता हूँ कि ये नीतियाँ पूरी तरह गाँधीजी की उपस्थिति के कारण बनी थीं।
मैं बहुत खेद के साथ कहना चाहता हूँ कि प्रधानमंत्री नेहरू भूल जाते हैं कि उनके उपदेश और कार्य कई बार एक दूसरे के प्रतिकूल होते हैं, जब इधर-उधर वे कहते हैं कि भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य है, क्योंकि यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पाकिस्तान के पंथ��धारित देश की स्थापना में नेहरू ने प्रमुख भूमिका निभायी थी और उनका कार्य गाँधीजी द्वारा लगातार मुस्लिमों का तुष्टीकरण करने की नीति द्वारा सरल बन गया था। मैंने जो भी किया है उसकी पूरी जिम्मेदारी लेते हुए मैं अब अदालत के सामने खड़ा हूँ और निश्चय जी न्यायाधीश ऐसा आदेश पारित करेंगे, जो मेरे कार्य के लिए उचित होगा। लेकिन मैं यह अवश्य कहना चाहता हूँ कि मैं अपने ऊपर कोई दया नहीं चाहता और न मैं यह चाहता हूँ कि कोई अन्य मेरे लिए किसी से कोई दया-याचना करे। अपने कार्य के नैतिक पक्ष पर मेरा विश्वास सभी ओर से की गयी मेरी आलोचनाओं से किंचित भी विचलित नहीं हुआ है। मुझे कोई सन्देह नहीं है कि इतिहास के ईमानदार लेखक मेरे कार्य का वजन तौलकर भविष्य में किसी दिन इसका सही मूल्यांकन करेंगे। जय हिन्द।